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ओशो गंगा/ Osho Ganga

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osho Hindi-( ओशो हिन्‍दी प्रवचन)
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Title ओशो गंगा/ Osho Ganga
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SEO Keywords (Single)

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है 345 17.25 %
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SEO Keywords (Two Word)

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SEO Keywords (Three Word)

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SEO Keywords (Four Word)

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ओशो गंगा/ Osho Ganga कुल पेज दृश्य सोमवार, 24 सितंबर 2018 तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-80 पूर्णता एवं शून्यता का एक ही अर्थ है- प्रवचन-अस्सीवां  प्रश्नसार: 1-यदि भीतर शून्य है तो इसे आत्मा क्यों कहते है? 2-बुद्ध पुरूष निर्णय कैसे लेता है? 3-संत लोग शांत जगहों पर क्यों रहते है? 4-आप कैसे जानते है कि चेतना शाश्वत है? 5-मेरे बुद्धत्व से संसार में क्या फर्क पड़ेगा?     पहला प्रश्न : आपने कहा कै हमारे भीतर वास्तव में कोई भी नहीं है। बस एक शून्य है? एक रिक्तता है। परंतु फिर आप इसे प्राय: आत्मा अथवा केंद्र कह कर क्यों पुकारते हैं? या अनात्मा, ना-कुछ या सब कुछ, विरोधाभासी लगते हैं, पर दोनों का एक ही अर्थ है। पूर्ण और शून्य का एक ही अर्थ है। शब्दकोश में वे विपरीत हैं पर जीवन में नहीं। इसे इस तरह समझो : यदि मैं कहूं कि मैं सबको प्रेम करता हूं या मैं कहूं कि मैं किसी को भी प्रेम नहीं करता तो इसका एक ही अर्थ होगा। यदि मैं किसी एक व्यक्ति को ही प्रेम करूं तभी अंतर पड़ेगा। यदि मैं सबको प्रेम करूं तो वह किसी को भी प्रेम न करने जैसा ही है। फिर कोई अंतर नहीं है। अंतर सदा मात्रा में होता है, और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 8:57:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: तंत्र--सूत्र--(भाग--5) ओशो new Dehli New Delhi, Delhi, India शनिवार, 22 सितंबर 2018 तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-79 शून्यता का दर्शन- प्रवचन-उन्नासिवां  सारसूत्र- 109-अपने निष्क्रय रूप को त्वचा की दीवारों का एक रिक्त कक्ष मानो-सर्वथ रिक्त। 110-हे गरिमामयी, लीला करो। यह ब्रह्मांड एक रिक्त खोल है। जिसमें तुम्हारा मन अनंत रूप में कौतुक करता है। 111-हे प्रिये, ज्ञान ओर अज्ञान, अस्तित्व ओर अनस्तित्व पर ध्यान दो। 112-आधारहीन, शाश्वत, निश्चल आकाश में प्रविष्ट होओ। विधियों रिक्तता से संबंधित हैं। ये सर्वाधिक कोमल, सर्वाधिक सूक्ष्म हैं, क्योंकि खालीपन की परिकल्पना भी असंभव प्रतीत होती है। बुद्ध ने इन चारों विधियों का अपने शिष्यों और भिक्षुओं के लिए प्रयोग किया है। और इन चारों विधियों के कारण ही वे बिलकुल गलत समझ लिए गए। इन चारों विधियों के कारण ही भारत की धरती से बौद्ध धर्म पूरी तरह उखड़ गया। बुद्ध कहते थे कि परमात्मा नहीं है। यदि परमात्मा है तो तुम पूरी तरह खाली नहीं हो सकते। हो सकता है तुम न रही पर परमात्मा तो रहेगा ही, दिव्य तो रहेगा ही। और तुम्हारा मन तुम्हें धोखा दे सकता है, क्योंकि हो सकता है तुम्हारा परमात्मा तुम्हारे मन की ही चाल हो। बुद्ध कहते थे कि कोई आत्मा नहीं है, क्योंकि यदि आत्मा हो तो तुम अपने अहंकार को उसके पीछे छिपा सकते हो। यदि तुम्हें लगे कि तुममें कोई आत्मा है तो तुम्हारे अहंकार का छूटना कठिन हो जाएगा। तब तुम पूरी तरह खाली नहीं हो पाओगे क्योंकि तुम तो रहोगे ही। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 8:15:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: तंत्र--सूत्र--(भाग--5) ओशो new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India शुक्रवार, 21 सितंबर 2018 तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-78 अंत: प्रज्ञा से जीना- प्रवचन-अट्ठहत्रवां  प्रश्नसार: 1-कुछ विधिया बहुत विकसित लोगों के लिए लगती है। 2-अंतविंवेक को कैसे पहचानें? 3-क्या अंत:प्रज्ञा से जीने वाला व्यक्ति बौद्धिक रूप से कमजोर होगा? पहला प्रश्न : इन एक सौ बारह विधियों में से कुछ विधियां ऐसे लगती हैं जैसे विधियां परिणाम हो, जैसे कि जागतिक चेतना बन जाओ' या 'यही एक हो रहो' आदि। ऐसा लगता है जैसे इन विधियों को उपलब्ध होने के लिए भी हमें विधियों की जरूरत है। क्या ये विधियां बहुत विकसित लोगों के लिए थीं जो कि इंगित मात्र से ही ब्रह्मांडींय बन सकते थे? विधियां बहुत विकसित लोगों के लिए नहीं थीं, बड़े निर्दोष लोगों के लिए थीं-भोले-भाले, सीधे-सादे श्रद्धा से भरे लोगों के लिए थी। फिर एक इशारा काफी है एक इंगित पर्याप्त है। तुम्हें कुछ करना पड़ता है क्योंकि तुम श्रद्धा नहीं कर सकते। तुम्हें भरोसा नहीं है। जब तक तुम कुछ करो न, तुम्हारे साथ कुछ हो नहीं सकता क्योंकि तुम कृत्य में विश्वास करते हो। यदि अचानक तुम्हारे बिना किए कुछ हो जाए तो तुम बहुत भयभीत हो जाओगे और उस पर विश्वास नहीं करोगे। तुम उसे नजर-अंदाज भी कर सकते हो; हो सकता है तुम अपने मन में इसकी छाप भी न बनने दो कि कभी ऐसा भी हुआ। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 8:05:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: तंत्र--सूत्र--(भाग--5) ओशो new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-77 चेतना का विस्तार-तंत्र-सूत्र-5 प्रवचन-सत्रहत्ररवां  सारसूत्र: 106-हर मनुष्य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो। अंत: आत्मचिंता को त्यागकर प्रत्येक प्राणी हो जाओ। 107-यह चेतना ही प्रत्येक प्राणी के यप में है, अन्य कुछ भी नहीं है। 108-यह चेतना ही प्रत्येक प्राणी की मार्गदर्शक सत्ता है, यही हो रहो। अस्तित्व स्वयं में अखंड है। मनुष्य की समस्या मनुष्य की स्व-चेतना के कारण पैदा होती है। चेतना सबको यह भाव देती है कि वे पृथक हैं। और यह भाव, कि तुम अस्तित्व से भिन्न हो, सब समस्याओं का निर्माण करता है। मूलत: यह भाव झूठा है, और जो कुछ भी झूठ पर आधारित होगा वह संताप पैदा करेगा, समस्याएं, उलझनें निर्मित करेगा। और तुम चाहे जो भी करो, यदि वह इस झूठी पृथकता पर आधारित है तो गलत ही होगा। तो मनुष्य के संताप की समस्या को शुरू से ही सुलझाना पड़ेगा : वह निर्मित कैसे होती है? चेतना तुम्हें यह भाव देती है कि तुम अपने अस्तित्व के केंद्र हो और अन्य लोग 'अन्य' हैं, कि तुम उनसे अलग हो। यह दूरी इसीलिए है क्योंकि तुम चेतन हो। जब तुम सोए होते हो तो कोई भिन्नता नहीं होती, तुम वापस ब्रह्मांड में मिल जाते हो। इसीलिए नींद से इतना आनंद आता है। सुबह तुम फिर ताजे, जीवंत और ऊर्जा से भरे होते हो। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 7:57:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: तंत्र--सूत्र--(भाग--5) ओशो new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India गुरुवार, 20 सितंबर 2018 तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-76 काम-उर्जा ही जीवन-ऊर्जा है प्रवचन-छियत्रवां  प्रश्नसार: 1-तंत्र की विधियां काम से ज्यादा संबंधित नहीं लगती है। 2-ज्ञान ओर अज्ञान आपस में किस प्रकार संबंधित है?   3-कृष्ण मूर्ति विधियों के विरोध में क्यों है ? 4-व्यवस्था के हानि-लाभ क्या है? पहला प्रश्न : हमने सदा यहीसुना है कि तंत्र मूल रूप से काम-ऊर्जा तथा काम-केंद्र की विधियों से संबंधित है, लेकिन आप कहते हैं कि तंत्र में सब समाहित । यदि पहले दृष्टिकोण में कोई सच्चाई है तो विज्ञान भैरव तंत्र में अधिकांश विधियां अतांत्रिक मालूम होती हैं।क्या यह सच है ? बात जो समझने की है, वह है काम-ऊर्जा। जैसा तुम इसे समझते हो, वह तो बस एक अंश है, जीवन-ऊर्जा का एक हिस्सा है लेकिन तंत्र जानता है कि यह जीवन का ही पर्याय है। यह जीवन का कोई अंश, कोई हिस्सा नहीं है, स्वयं जीवन ही है। तो जब तंत्र कहता है काम-ऊर्जा तो उसका अर्थ होता है जीवन-ऊर्जा। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 9:10:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: तंत्र--सूत्र--(भाग--5) ओशो new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-75 विपरीत ध्रुवों में लय की खोज प्रवचन-पिच्हत्रवां  सारसूत्र: 102-अपने भीतर तथा बाहर एक साथ आत्मा की कल्पना करो, जब तक कि संपूर्ण अस्तित्व आत्मवान न हो जाए। 103-अपनी संपूर्ण चेतना से कामना के, जानने के आरंभ में ही, जानों। 104-हे शक्ति, प्रत्येक आभार सीमित है, सर्वशक्तिमान में विलीन हो रहा है। 104-सत्य में रूप अविभक्त हैं। सर्वव्यापी आत्मा तथा तुम्हारा अपना रूप अविभक्त है। दोनों को इसी चेतना से निर्मित जानों। महाकवि वाल्ट व्हिटमैन ने कहा है, ‘मैं अपना ही विरोध करता हूं क्योंकि मैं विशाल हूं। मैं अपना ही विरोध करता हूं क्योंकि में सब विरोधों को समाहित करता हूं, क्योंकि मैं सब कुछ हूं।’  शिव के संबंध में, तंत्र के संबंध में भी यही कहा जा सकता है। तंत्र है विरोधों के बीच, विरोधाभासों के बीच लय की खोज। विरोधाभासी, विरोधी दृष्टिकोण तंत्र में एक हो जाते हैं। इसे गहराई से समझना पड़ेगा, तभी तुम समझ पाओगे कि इसमें इतनी विरोधाभासी, इतनी भिन्न विधियां क्यों हैं। जीवन है विरोधों के बीच एक लयबद्धता : पुरुष और स्त्री, विधायक और निषेधात्मक, दिन और रात, जन्म और मृत्यु। इन दो विरोधों के बीच जीवन की धारा बहती है। किनारे विरोधी ध्रुव हैं। वे विरोधाभासी दिखाई पड़ते हैं पर वे हैं सहयोगी। विरोध का वह आभास झूठ है। जीवन, विरोधी ध्रुवों के बीच लय के बिना नहीं रह सकता। और जीवन में सब समाहित है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 8:57:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: तंत्र--सूत्र--(भाग--5) ओशो new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India सोमवार, 17 सितंबर 2018 मन का दर्पण-(प्रवचन-04) मन का दर्पण-(विविध) प्रवचन-चौथा-(ओशो) प्रभु तो द्वार पर ही खड़ा है मेरे प्रिय आत्मन्! एक बहुत बड़े मंदिर में बहुत पुजारी थे। विशाल वह मंदिर था। सैकड़ों पुजारी उसमें सेवारत थे। एक रात एक पुजारी ने स्वप्न देखा कि कल संध्या जिस प्रभु की पूजा वे निरंतर करते रहे थे, वह साक्षात मंदिर में आने को है। दूसरा दिन उस मंदिर में उत्सव का दिन हो गया। दिन भर पुजारियों ने मंदिर को स्वच्छ किया, साफ किया। प्रभु आने को थे, उनकी तैयारी थी। संध्या तक मंदिर सज कर वैभव की भांति खड़ा हो गया। मंदिर के कंगूरे-कंगूरे पर दीये जल रहे थे। धूप-दीप, फूल-सुगंध--मंदिर बिलकुल नया हो उठा था। सांझ आ गई, सूरज ढल गया और प्रभु की प्रतीक्षा शुरू हो गई, पुजारी जाग कर खड़े थे। लेकिन घड़ियां बीतने लगीं और उस के आने का कोई...कोई भी सुराग न मिला, उसके रथ के आगमन की कोई सूचना न मिली। फिर रात गहरी होने लगी और पुजारियों को शक हो आया। कोई कहने लगा, स्वप्न का भी क्या भरोसा? स्वप्न स्वप्न होते हैं, स्वप्न भी कहीं सत्य हुए हैं! भूल में पड़ गए हम। व्यर्थ हमने श्रम किया। फिर वे थक गए थे दिन भर से, सो गए। दीये का तेल चुक गया और दीये बुझ गए। धूप बुझ गई। घनघोर अंधेरे में मंदिर डूब गया। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 8:05:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: मन का दर्पण-(विविध) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India मन का दर्पण-(प्रवचन-03) मन का दर्पण-(विविध) तीसरा-प्रवचन-(ओशो)  असंग की खोज एक तो संगठनों पर मेरी कोई भी आस्था नही है, क्योंकि संगठन सभी अंततः खतरनाक सिद्ध होते हैं। और सभी संगठन अनिवार्यरूपेण संप्रदाय बनते हैं। तो एक तो संगठन कोई नहीं बनाना है। जीवन जागृति केंद्र एक बिलकुल मित्रों के मिलने का स्थल भर है, कोई संगठन नहीं है। ऐसा कोई संगठन नहीं है कि उसकी सदस्यता से कोई बंधता हो। न ऐसा कोई संगठन कि वह कोई किसी विशेष विचारधारा को मान कर उसका अनुयायी बनता हो। अगर ठीक से मेरी बात समझें, तो मैं किसी विचार को नहीं फैलाना चाहता, विचार करने की प्रक्रिया को भर फैलाना चाहता हूं। यानी मैं कोई आइडियालाॅजी या कोई सिद्धांत नहीं देना चाहता किसी को। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति सोचने-समझने, स्वयं सोचने-समझने में कैसे समर्थ हो, इसकी व्यवस्था देना चाहता हूं। दूसरे जो संगठन हैं, मिशन हैं, उनकी नजर बिलकुल दूसरी है। उनकी नजर यह है कि वे कोई विचार आपके दिमागों में डालना चाहते हैं। तो एक तो सबसे पहले यह स्पष्ट होना चाहिए कि न कोई संप्रदाय, न कोई संगठन। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 7:57:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: मन का दर्पण-(विविध) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India मन का दर्पण-(प्रवचन-02) मन का दर्पण-(विविध) दूसरा-प्रवचन-(ओशो) स्वयं को जानना सरलता है मेरे प्रिय आत्मन्! मैं कौन हूं? इस प्रश्न का उत्तर शायद मनुष्य के द्वारा पूछे जाने वाले किसी भी प्रश्न से ज्यादा सरल है, और साथ ही और जल्दी से यह भी कह देना जरूरी है कि इस प्रश्न से ज्यादा कठिन किसी और प्रश्न का उत्तर भी नहीं है। सरलतम भी यही है और कठिनतम भी। सरल इसलिए है कि जो हम हैं अगर उसका प्रश्न भी हल न हो सके, अगर उसका उत्तर पाना भी सरल न हो, तो फिर इस जगत में किसी और प्रश्न का उत्तर पाना सरल नहीं हो सकता। जो मैं हूं, अगर मैं उसे भी न जान सकूं, तो मैं और किसे जान सकूंगा? किसी भी दूसरे को मैं केवल बाहर से परिचित हो सकता हूं, जान नहीं सकता। एक्वेंटेंस हो सकता है, पहचान हो सकती है। क्योंकि मैं सदा दूसरे के बाहर हूं, मैं कभी भी दूसरे के भीतर प्रविष्ट नहीं हो सकता हंू। मैं कितना ही घूमूं, मैं दूसरे के बाहर ही घूमता रहूंगा। तो मैं दूसरे से परिचित हो सकता हूं लेकिन दूसरे का ज्ञान कभी भी नहीं हो सकता। एक्वेंटेंस हो सकता है, नालेज नहीं हो सकती। तो अगर मेरा ही ज्ञान संभव न हो, सरल न हो, तो फिर और सरल क्या होगा? और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 7:37:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: मन का दर्पण-(विविध) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India मन का दर्पण-(प्रवचन-01) मन का दर्पण-(विविध)  पहला-प्रवचन-(ओशो) एक नया द्वार मेरे प्रिय आत्मन्! मनुष्य का जीवन रोज-रोज ज्यादा से ज्यादा अशांत होता चला जाता है और इस अशांति को दूर करने के जितने उपाय किए जाते हैं उनसे अशांति घटती हुई मालूम नहीं पड़ती और बढ़ती हुई मालूम पड़ती है। और जिन्हें हम मनुष्य के जीवन में शांति लाने वाले वैद्य समझते हैं वे बीमारियों से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध होते चले जाते हैं। ऐसा बहुत बार होता है कि रोग से भी ज्यादा औषधि खतरनाक सिद्ध होती है। अगर कोई निदान न हो, अगर कोई ठीक डाइग्नोसिस न हो, अगर ठीक से न पहचाना गया हो कि बीमारी क्या है, तो इलाज बीमारी से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध हो तो आश्चर्य नहीं है। मनुष्य के जीवन में अशांति का मूल कारण क्या है? दुख, पीड़ा क्या है? मनुष्य के तनाव और टेंशन के पीछे कौन सी वजह है उसका ठीक-ठीक पता न हो तो हम जो भी करते हैं वह और भी कठिनाइयों में डालता चला जाता है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 5:14:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: मन का दर्पण-(विविध) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India रविवार, 16 सितंबर 2018 भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-05) भारत के जलते प्रश्न-(राष्ट्रीय-सामाजिक) पांचवां-प्रवचन-(ओशो)  भारत के भटके युवक मेरे प्रिय आत्मन्! हमारी चर्चाओं का अंतिम दिन है, और बहुत से प्रश्न बाकी रह गए हैं। तो मैं बहुत थोड़े-थोड़े में जो जरूरी प्रश्न मालूम होते हैं, उनकी चर्चा करना चाहूंगा। एक मित्र ने पूछा है कि कहा जाता है कि भारत का जवान राह खो बैठा है। उसे सच्ची राह पर कैसे लाया जा सकता है? पहली तो यह बात ही झूठ है कि भारत का जवान राह खो बैठा है। भारत का जवान राह नहीं खो बैठा है, भारत की बूढ़ी पीढ़ी की राह अचानक आकर व्यर्थ हो गई है, और आगे कोई राह नहीं है। एक रास्ते पर हम जाते हैं और फिर रास्ता खत्म हो जाता है, और खड्डा आ जाता है। आज तक हमने जिसे रास्ता समझा था वह अचानक समाप्त हो गया है, और आगे कोई रास्ता नहीं है। और रास्ता न हो तो खोने के सिवाय मार्ग क्या रह जाएगा? भारत का जवान नहीं खो गया है, भारत ने अब तक जो रास्ता निर्मित किया था, इस सदी में आकर हमें पता चला है कि वह रास्ता है नहीं। इसलिए हम बेराह खड़े हो गए हैं। रास्ता तो तब खोया जाता है जब रास्ता हो और कोई रास्ते से भटक जाए। जब रास्ता ही न बचा हो तो किसी को भटकने के लिए जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। जवान को रास्ते पर नहीं लाना है, रास्ता बनाना है। रास्ता नहीं है आज। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 2:43:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: भारत के जलते प्रश्न-(राष्ट्रीय-सामाजिक) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-04) भारत के जलते प्रश्न-(राष्ट्रीय-सामाजिक) चौथा-वचन-(ओशो)  पूंजीवाद की अनिवार्यता मेरे प्रिय आत्मन्! एक मित्र ने पूछा है कि क्या आप बता सकते हैं कि हमारे देश की वर्तमान परिस्थिति के लिए कौन जवाबदार है? सदा से हम यही पूछते रहे हैं कि कौन जवाबदार है। इससे ऐसी भ्रांति पैदा होती है कि कोई और हमारे सिवाय जवाबदार होगा। इस देश की परिस्थिति के लिए हम जवाबदार हैं। यह बहुत ही क्लीव और नपुंसक विचार है कि सदा हम किसी और को जवाबदार ठहराते हैं। जब तक हम दूसरों को जवाबदार ठहराते रहेंगे तब तक इस देश की परिस्थिति बदलेगी नहीं क्योंकि दूसरे को जवाबदार ठहरा कर हम मुक्त हो जाते हैं और बात वहीं की वहीं ठहर जाती है। हम ही जवाबदार हैं। यदि हम गुलाम थे तो हम कहते हैं, किसी ने हमें गुलाम बना लिया, वह जवाबदार है। और हम यह कभी नहीं सोचते कि हम गुलाम बन गए इसलिए हम जवाबदार हैं। इस दुनिया में कोई भी किसी को गुलाम नहीं बना सकता। अगर गुलाम स्वयं गुलाम बनने को तैयार नहीं है तो असंभव है। मैं मर सकता हूं, अगर मुझे गुलाम नहीं बनना है। तो मैं कम से कम मर तो सकता ही हूं। लेकिन मैं जिंदगी को पसंद करता हूं, चाहे वह गुलामी की जिंदगी हो, तब फिर मुझे गुलाम बनाया जा सकता है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 2:27:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: भारत के जलते प्रश्न-(राष्ट्रीय-सामाजिक) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-03) भारत के जलते प्रश्न-(राष्ट्रीय-सामाजिक) तीसरा-प्रवचन-(ओशो) राष्ट्रभाषा और खंडित देश मेरे प्रिय आत्मन्! प्रश्नों के ढेर से लगता है कि भारत के सामने कितनी जीवंत समस्याएं होंगी। करीब-करीब समस्याएं ही समस्याएं हैं और समाधान नहीं हैं। एक मित्र ने पूछा है कि क्या भारत में कोई राष्ट्रभाषा होनी चाहिए? यदि हां, तो कौन सी? राष्ट्रभाषा का सवाल ही भारत में बुनियादी रूप से गलत है। भारत में इतनी भाषाएं हैं कि राष्ट्रभाषा सिर्फ लादी जा सकती है और जिन भाषाओं पर लादी जाएगी उनके साथ अन्याय होगा। भारत में राष्ट्रभाषा की कोई भी जरूरत नहीं है। भारत में बहुत सी राष्ट्रभाषाएं ही होंगी और आज कोई कठिनाई भी नहीं है कि राष्ट्रभाषा जरूरी हो। रूस बिना राष्ट्रभाषा के काम चलाता है तो हम क्यों नहीं चला सकते। आज तो यांत्रिक व्यवस्था हो सकती है संसद में, बहुत थोड़े खर्च से, जिसके द्वारा एक भाषा सभी भाषाओं में अनुवादित हो जाए। लेकिन राष्ट्रभाषा का मोह बहुत महंगा पड़ रहा है। भारत की प्रत्येक भाषा राष्ट्रभाषा होने में समर्थ है इसलिए कोई भी भाषा अपना अधिकार छोड़ने को राजी नहीं होगी--होना भी नहीं चाहिए। लेकिन यदि हमने जबरदस्ती किसी भाषा को राष्ट्रभाषा बना कर थोपने की कोशिश की तो देश खंड-खंड हो जाएगा। आज देश के बीच विभाजन के जो बुनियादी कारण हैं उनमें भाषा एक है। राष्ट्रभाषा बनाने का खयाल ही राष्ट्र को खंड-खंड में तोड़ने का कारण बनेगा। लेकिन हमें वह भूत जोर से सवार है कि राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। अगर राष्ट्र को बचाना हो तो राष्ट्रभाषा से बचना पड़ेगा। और अगर राष्ट्र को मिटाना हो तो राष्ट्रभाषा की बात आगे भी जारी रखी जा सकती है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 2:18:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: भारत के जलते प्रश्न-(राष्ट्रीय-सामाजिक) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-02) भारत के जलते प्रश्न-(राष्ट्रीय-सामाजिक) दूसरा-प्रवचन-(ओशो)  गरीबी और समाजवाद बहुत सी समस्याएं हैं और बहुत सी उलझने हैं। लेकिन ऐसी एक भी उलझन नहीं जो मनुष्य हल करना चाहे और हल न कर सके। लेकिन यदि मनुष्य सोच ले कि हल हो ही नहीं सकता तब फिर सरल से सरल उलझन भी सदा के लिए उलझन रह जाती है। इस देश का दुर्भाग्य है कि हमने बहुत सी उलझनों को ऐसा मान रखा है कि वे सुलझ ही नहीं सकती हैं। और एक बार कोई कौम इस तरह की धारणा बना ले तो उसकी समस्याएं फिर कभी हल नहीं होती हैं। जैसे बड़ी से बड़ी हमारी समस्या गरीबी की, दरिद्रता की, दीनता की है। लेकिन इस देश ने दीनता, दरिद्रता को दूर करने की बजाय ऐसी व्याख्याएं स्वीकार कर ली हैं, जिनसे दरिद्रता कभी भी दूर नहीं हो सकेगी। बजाय दरिद्रता को समझने के कि हम उसे कैसे दूर कर सकें, हमने दरिद्रता को इस भांति समझा है कि हम कैसे उसे स्वीकार कर सकें। दूर करना दूर, स्वीकार करने की प्रवृत्ति ने उसे स्थायी बीमारी बना दिया है। सोचा नहीं--ऐसा नहीं है, लेकिन गलत ढंग से सोचा। और कोई न सोचे तो कभी ठीक ढंग से सोच भी ले, लेकिन एक बार गलत ढंग से सोचने की आदत बन जाए तो हजारों साल पीछा करती है। गरीब हम बहुत पुराने समय से हैं। सच तो यह है कि हम अमीर कभी भी नहीं थे। हो भी नहीं सकते थे। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 1:59:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: भारत के जलते प्रश्न-(राष्ट्रीय-सामाजिक) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-01)  भारत के जलते प्रश्न-(राष्ट्रीय-सामाजिक)  पहला-प्रवचन-(ओशो) समस्याओं के ढेर भारत समस्याओं से और प्रश्नों से भरा है। और सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि हमारे पास उत्तरों की और समाधानों की कोई कमी नहीं है। शायद जितने प्रश्न हैं हमारे पास, उससे ज्यादा उत्तर हैं और जितनी समस्याएं हैं, उससे ज्यादा समाधान हैं। लेकिन एक भी समस्या का कोई समाधान हमारे पास नहीं है। समाधान बहुत हैं, लेकिन सब समाधान मरे हुए हैं और समस्याएं जिंदा हैं। उनके बीच कोई तालमेल नहीं है। मरे हुए उत्तर हैं और जीवंत प्रश्न हैं। जिंदा प्रश्न हैं और मरे हुए उत्तर हैं। मरे हुए उत्तर हैं और जीवित प्रश्न हैं। और जैसे मरे हुए आदमी और जिंदा आदमी के बीच कोई बातचीत नहीं हो सकती ऐसे ही हमारे समाधानों और हमारी समस्याओं के बीच कोई बातचीत नहीं हो सकती। एक तरफ समाधानों का ढेर है और एक तरफ समस्याओं का ढेर है। और दोनों के बीच कोई सेतु नहीं है, क्योंकि सेतु हो ही नहीं सकता। मरे हुए उत्तर जिस कौम के पास बहुत हो जाते हैं, उस कौम को नये उत्तर खोजने की कठिनाई हो जाती है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 1:52:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: भारत के जलते प्रश्न-(राष्ट्रीय-सामाजिक) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India भारत का भविष्य-(प्रवचन-17) भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक) (नोट-इस प्रवचन का आडियों टेप अब उपलब्ध नहीं है) सत्रहवां-प्रवचन-(ओशो)  क्या भारत को क्रांति की जरूरत है? क्या भारत को क्रांति की जरूरत है? यह प्रश्न वैसा ही है जैसे कोई किसी बीमार आदमी के पास खड़ा होकर पूछे कि क्या बीमार आदमी को औषधि की जरूरत है? भारत को क्रांति की जरूरत ऐसी नहीं है, जैसी और चीजों की जरूरत होती है, बल्कि भारत बिना क्रांति के अब जी भी नहीं सकेगा। इस क्रांति की जरूरत कोई आज पैदा हो गई है, ऐसा भी नहीं है। भारत के पूरे इतिहास में कोई क्रांति कभी हुई ही नहीं। आश्चर्यजनक है यह घटना कि एक सभ्यता कोई पांच हजार वर्षों से अस्तित्व में है लेकिन वह क्रांति से अपरिचित है। निश्चित ही जो सभ्यता पांच हजार वर्षों से क्रांति से अपरिचित है वह करीब-करीब मर चुकी होगी। हम केवल उसके मृत बोझ को ही ढो रहे हैं और हमारी अधिकतम समस्याएं उस मृत बोझ को ही ढोने से ही पैदा हुई हैं। अगर हम मरे हुए लोगों की लाशें इकट्ठी करते चले जाएं तो पांच हजार वर्षों में उस घर की जो हालत हो जाएगी, वही हाल पूरे भारत का हो गया है। अगर एक घर में मरे हुए लोगों की सारी लाशें इकट्ठी हो जाएं तो क्या परिणाम होगा? उस घर में आने वाले नये बच्चों का जीवन अत्यंत संकटपूर्ण हो जाएगा। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 7:34:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: भारत का भविष्य-(राष्ट्रीय-सामाजिक समस्याएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India भारत का भविष्य-(प्रवचन-16) भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक) सोलहवां-प्रवचन-(ओशो)  भारत का दुर्भाग्य मेरे प्रिय आत्मन्! भारत के दुर्भाग्य की कथा बहुत लंबी है। और जैसा कि लोग साधारणतः समझते हैं कि हमें ज्ञात है कि भारत का दुर्भाग्य क्या है, वह बात बिल्कुल ही गलत है। हमें बिल्कुल भी ज्ञात नहीं है कि भारत का दुर्भाग्य क्या है। दुर्भाग्य के जो फल और परिणाम हुए हैं वे हमें ज्ञात हैं। लेकिन किन जड़ों के कारण, किन रूट्स के कारण भारत का सारा जीवन विषाक्त, असफल और उदास हो गया है? वे कौन से बुनियादी कारण हैं जिनके कारण भारत का जीवन-रस सूख गया है, भारत का बड़ा वृक्ष धीरे-धीरे कुम्हला गया, उस पर फूल-फल आने बंद हो गए हैं, भारत की प्रतिभा पूरी की पूरी जड़, अवरुद्ध हो गई है? वे कौन से कारण हैं जिनसे यह हुआ है? निश्चित ही, उन कारणों को हम समझ लें तो उन्हें बदला भी जा सकता है। सिर्फ वे ही कारण कभी नहीं बदले जा सकते जिनका हमें कोई पता ही न हो। बीमारी मिटानी उतनी कठिन नहीं है जितना कठिन निदान, डाइग्नोसिस है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 7:21:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: भारत का भविष्य-(राष्ट्रीय-सामाजिक समस्याएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India भारत का भविष्य-(प्रवचन-15) भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक) पंद्रहवां-प्रवचन'(ओशो)  भारत का भविष्य मेरे प्रिय आत्मन्! एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहता हूं। बहुत पुराने दिनों की घटना है, एक छोटे से गांव में एक बहुत संतुष्ट गरीब आदमी रहता था। वह संतुष्ट था इसलिए सुखी भी था। उसे पता भी नहीं था कि मैं गरीब हूं। गरीबी केवल उन्हें ही पता चलती है जो असंतुष्ट हो जाते हैं। संतुष्ट होने से बड़ी कोई संपदा नहीं है, कोई समृद्धि नहीं है। वह आदमी बहुत संतुष्ट था इसलिए बहुत सुखी था, बहुत समृद्ध था। लेकिन एक रात अचानक दरिद्र हो गया। न तो उसका घर जला, न उसकी फसल खराब हुई, न उसका दिवाला निकला। लेकिन एक रात अचानक बिना कारण वह गरीब हो गया था। आप पूछेंगे, कैसे गरीब हो गया? उस रात एक संन्यासी उसके घर मेहमान हुआ और उस संन्यासी ने हीरों की खदानों की बात की और उसने कहा, पागल तू कब तक खेतीबाड़ी करता रहेगा? पृथ्वी पर हीरों की खदानें भरी पड़ी हैं। अपनी ताकत हीरों की खोज में लगा, तो जमीन पर सबसे बड़ा समृद्ध तू हो सकता है। समृद्ध होने के सपनों ने उसकी रात खराब कर दी। वह आज तक ठीक से सोया था। आज रात ठीक से नहीं सो पाया। रात भर जागता रहा और सुबह उसने पाया कि वह एकदम दरिद्र हो गया है, क्योंकि असंतुष्ट हो गया था। उसने अपनी जमीन बेच दी, अपना मकान बेच दिया, सारे पैसों को इकट्ठा करके वह हीरों की खदान की खोज में निकल पड़ा। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 6:29:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: भारत का भविष्य-(राष्ट्रीय-सामाजिक समस्याएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India शनिवार, 15 सितंबर 2018 भारत का भविष्य-(प्रवचन-14) भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक) चौदहवां-प्रवचन-(ओशो)  सादगी का कभी-कभी मजाक करते हैं तो ऐसा नहीं है कि गांधी जी ने इस देश का निरीक्षण किया, पर्यटन किया और करुणा की वजह से उन्होंने जीवन में जो जरूरी थी उतनी चीजों से चला कर वह सादगी का अंगीकार किया था, वह करुणा की वजह से किया नहीं है वह? करुणा की वजह से हो या न हो, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। मेरे लिए यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि गांधी जी ने किस वजह से सादगी अख्तियार की। मेरे लिए महत्वपूर्ण बात यह है कि सादगी का रुख मुल्क को गरीब बनाता है। मेरे लिए वह महत्वपूर्ण नहीं है। वह गांधी जी की व्यक्तिगत बात है कि वे करुणा से सादे रहे हैं, या उनको कोई ऑब्सेशन है इसलिए सादे रहे हैं, या दिमाग खराब है इसलिए सादे रहे हैं। इससे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। वह गांधी जी की निजी बात है। मेरे लिए प्रयोजन जिस बात से है वह यह है कि जो मुल्क सादगी को प्रतिष्ठा देता है वह मुल्क संपन्न नहीं हो सकता। मेरे लिए जो आधार है आलोचना का वह बिल्कुल दूसरा है। इससे मुझे प्रयोजन ही नहीं है। गांधी जी की करुणा हो वह उनके साथ है। लेकिन जो सवाल है वह यह है कि अगर हम एक बार किसी मुल्क में..आवश्यकताएं कम होनी चाहिए, सादगी होनी चाहिए, जीवन सीधा होना चाहिए, और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 6:26:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: भारत का भविष्य-(राष्ट्रीय-सामाजिक समस्याएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India भारत का भविष्य-(प्रवचन-13) भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक) तेरहवां-प्रवचन-(ओशो) एक नये भारत की ओर मेरे प्रिय आत्मन्! एक नये भारत की ओर? इस संबंध में थोड़ी सी बातें मैं आपसे कहना चाहूंगा। पहली बात तो यह कि भारत को हजारों वर्ष तक यह पता ही नहीं था कि वह पुराना हो गया है। असल में पुराने होने का पता ही तब चलता है जब हमारे पड़ोसी नये हो जाएं। पुराने के बोध के लिए किसी का नया हो जाना जरूरी है। भारत को हजारों वर्ष तक यह पता नहीं था कि वह पुराना हो गया है। इधर इस सदी में आकर हमें यह प्रतीति होनी शुरू हुई है कि हम पुराने हो गए हैं। इस प्रतीति को झुठलाने की हम बहुत कोशिश करते हैं। क्योंकि यह बात मन को वैसे ही दुख देती है जैसे किसी बूढ़े आदमी को जब पता चलता है कि वह बूढ़ा हो गया है तो दुख शुरू होता है। बूढ़ा होना जैसा दुखद है वैसे किसी राष्ट्र के बूढ़े हो जाने का भी दुख है। बूढ़ा आदमी चाहे तो अपने बुढ़ापे को झुठलाने की कोशिश कर सकता है। लेकिन झुठलाने से बुढ़ापा कम नहीं होता। भारत भी इधर पचास वर्षों से निरंतर यह बात इनकार करने की कोशिश कर रहा है कि हम पुराने हो गए हैं। इस इनकार करने की उसने कुछ मानसिक व्यवस्था की है, वह समझना जरूरी है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 6:17:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: भारत का भविष्य-(राष्ट्रीय-सामाजिक समस्याएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India भारत का भविष्य-(प्रवचन-12) भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक) बारहवां-प्रवचन-(ओशो)  एक बहुत पुराने नगर में उतना ही पुराना एक चर्च था। वह चर्च इतना पुराना था कि उस चर्च में भीतर जाने में भी प्रार्थना करने वाले भयभीत होते थे। उसके किसी भी क्षण गिर पड़ने की संभावना थी। आकाश में बादल गरजते थे तो चर्च के अस्थि-पंजर कंप जाते थे। हवाएं चलती थीं तो लगता था चर्च अब गिरा, अब गिरा। ऐसे चर्च में कौन प्रवेश करता? कौन प्रार्थना करता? धीरे-धीरे उपासक आने बंद हो गए। चर्च के संरक्षकों ने कभी दीवाल का पलस्तर बदला, कभी खिड़की बदली, कभी द्वार रंगे। लेकिन न द्वार रंगने से, न पलस्तर बदलने से, न कभी यहां ठीक कर देने से, वहां ठीक कर देने से, वह चर्च इस योग्य न हुआ कि उसे जीवित माना जा सके। वह मुर्दा ही बना रहा। लेकिन जब सारे उपासक आने बंद हो गए। तब चर्च के संरक्षकों को भी सोचना पड़ा। क्या करें? और उन्होंने एक दिन कमेटी बुलाई। वह कमेटी भी चर्च के बाहर ही मिली, भीतर जाने की उनकी भी हिम्मत न थी। वह किसी भी क्षण गिर सकता था। रास्ते चलते लोग भी तेजी से निकल जाते थे। संरक्षकों ने बाहर बैठ कर चार प्रस्ताव स्वीकृत किए। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 6:08:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: भारत का भविष्य-(राष्ट्रीय-सामाजिक समस्याएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India भारत का भविष्य-(प्रवचन-11) भारत का भविष्य-–(राष्ट्रीय-सामाजिक) ग्यारहवां-प्रवचन-(ओशो) मेरे प्रिय आत्मन्! बीती दो चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्न आए हैं। कुछ मित्रों ने पूछा है कि भारत सैकड़ों वर्षों से दरिद्र है, तो इस दरिद्रता में, इस दरिद्रता में तो गांधीवाद का हाथ नहीं हो सकता है? वह क्यों दरिद्र है इतने वर्षों से? गांधीवाद का हाथ तो नहीं है, लेकिन गांधीवाद जैसी ही विचारधाराएं इस देश को हजारों साल से पीड़ित किए हुए हैं। उन विचारधाराओं का हाथ है। नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उन विचारधाराओं को हम क्या नाम देते हैं। दो विचारधाराओं पर ध्यान दिलाना जरूरी है। एक तो भारत में कोई तीन-चार हजार वर्षों से संतोष की, कंटेंटमेंट की जीवन धारणा को स्वीकार किया है। संतुष्ट रहना है, जितना है उसमें संतोष कर लेना है। जो भी है उसमें ही तृप्ति मान लेनी है। अगर हजारों वर्ष तक किसी देश की प्रतिभा को, मस्तिष्क को संतोष की ही बात समझाई जाए, तो विकास के सब द्वार बंद हो जाते हैं। संतोष आत्मघाती है। जरूर एक संतोष है जो आत्मज्ञान से उपलब्ध होता है। उस संतोष का इस तथाकथित संतोष से कोई संबंध नहीं है। एक संतोष है जो व्यक्ति स्वयं को जान कर या प्रभु के मंदिर में प्रवेश करके उपलब्ध करता है। वह संतोष बनाना नहीं पड़ता, समझना नहीं पड़ता, सोचना नहीं पड़ता, अपने पर थोपना नहीं पड़ता। वह परम उपलब्धि से पैदा हुई छाया है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 5:59:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: भारत का भविष्य-(राष्ट्रीय-सामाजिक समस्याएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India शुक्रवार, 14 सितंबर 2018 भारत का भविष्य-(प्रवचन-10) भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक) दसवां-प्रवचन-ओशो ए रेडियो टॉक बाई ओशो ...अंत तक अमल नहीं करते। पर मैं तो बहुत कुछ करना भी चाह रही हूं बीबी जी। सच! हां। यह सच फिर वही बात की आपने, आप करना चाह रही हैं या कुछ कर रही हैं? मैं तो यह जानना चाहती हूं। बीबी देखिए, देश-विवाह हमारा पहला कर्तव्य है, पहला धर्म है, बस इसी के लिए हम कुछ योजनाएं बना रहे हैं। हां-हां, यानी और भी कुछ लोग हैं आपके पास? हां, मेरी कुछ पड़ोसनें भी अपना सहयोग दे रही हैं। भई वाह! हम लोग सप्ताह में एक बार मिल बैठते हैं और फिर इस बैठक में बहुत सी बातें होती हैं। अच्छा, जरा किस विषय पर बातें होती हैं, मैं भी सुनूं। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 8:57:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: भारत का भविष्य-(राष्ट्रीय-सामाजिक समस्याएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India भारत का भविष्य-(प्रवचन-09) भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक) नौवां प्रवचन-(ओशो) शिक्षा और समाज व्यक्ति के अतिरिक्त और कोई जगह है नहीं। समाज और झूठ, जो बड़े से बड़ा झूठ है। समाज का झूठ दिखाई नहीं पड़ता। लगता ऐसा है कि वही सत्य है, और व्यक्ति तो कुछ भी नहीं। झूठ अगर बहुत पुराना हो, पीढ़ी दर पीढ़ी, लाखों साल में हमने उसे स्थापित किया हो, तो ख्याल में नहीं आता। लेकिन ख्याल में आना शुरू हुआ है और दुनिया को यह धीरे-धीरे रोज अनुभव होता जा रहा है कि समाज के नाम से की गई कोई भी क्रांति सफल नहीं हुई। और समाज के नाम से हमने जो भी आज तक किया है उससे हमारी मुसीबत समाप्त नहीं हुई। मुसीबत बदल गई हो, यह हो सकता है। एक मुसीबत छोड़ कर हमने दूसरी मुसीबत पा लिए हों, यह तो हुआ है, मुसीबत समाप्त नहीं हो सकी। मेरी तो दृष्टि ऐसी है कि सामाजिक क्रांति असंभावना है। और जब मैं ऐसा कहता हूं असंभावना है तो मेरा मतलब यह है कि आप सिर्फ धोखा खड़ा करते हैं। अब जैसे उदाहरण के लिए, मनुष्य के इतिहास में जितने लोगों ने भी समाज को ध्यान में रख कर मेहनत की है, उनकी मेहनत बिल्कुल ही असफल हुई। न केवल असफल हुई बल्कि घातक भी सिद्ध हुई। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 7:39:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: भारत का भविष्य-(राष्ट्रीय-सामाजिक समस्याएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India शनिवार, 8 सितंबर 2018 भारत का भविष्य-(प्रवचन-08) भारत का भविष्य--(राष्ट्रीय-सामाजिक) आठवां-प्रवचन-(ओशो)  डिक्टेटरशिप व्यक्ति की नहीं; विचार की (प्रारंभ का मैटर उपलब्ध नहीं। ) ...और दो बच्चे के बाद अनिवार्य आपरेशन। समझाने-बुझाने का सवाल नहीं है यह। जैसे हम नहीं समझाते हैं हत्यारे को कि तुम हत्या मत करो, हत्या करना बुरा है। हम कहते हैं, हत्या करना कानूनन बंद है। हत्या से भी ज्यादा खतरनाक आज संख्या बढ़ाना है। तो एक तो अनिवार्य संतति-नियमन। जो लोग बिल्कुल बच्चे पैदा न करें, उनको तनख्वाह में बढ़ती, सिनयारिटी, जो बिल्कुल बच्चे पैदा न करें, एक भी बच्चा पैदा न करें, उनको इज्जत, सम्मान, उनको जितनी सुविधाएं दे सकते हैं उनको सुविधाएं दी जानी चाहिए। वॉट फार्म ऑफ गवर्नमेंट, यू विज्युअलाइज फॉर दिस वन। वही बात कर रहा हूं। इधर हमारी कोई साठ प्रतिशत समस्याएं हमारी संख्या से खड़ी हो रही हैं। हम समस्याओं को हल करते चले जाएंगे और संख्या यहां बढ़ती चली जाएगी। हम कुछ भी हल नहीं कर पाएंगे। रोज हम हल करेंगे और रोज नई समस्याएं खड़ी हो जाएंगी। तो साठ प्रतिशत समस्याएं कम से कम सिर्फ नष्ट हो सकती हैं अगर हम संख्या पर एक व्यवस्थित संतुलन उपलब्ध कर लें। जो कि किया जा सकता है। लेकिन लोकतंत्र की धारणा हमारी कि बच्चे पैदा करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। वह मुझे गलत दिखाई पड़ती है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 2:01:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: भारत का भविष्य-(राष्ट्रीय-सामाजिक समस्याएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India भारत का भविष्य-(प्रवचन-07) भारत का भविष्य--(राष्ट्रीय-सामाजिक) सातवां-प्रवचन-(ओशो) आध्यात्मिक दृष्टि मोरार जी भाई देसाई ने कहा कि गांधी जी की आलोचना आर्थिक सोच-विचार करने वाले लोग करते थे, अब आध्यात्मिक लोगों ने भी इनकी आलोचना करनी शुरू कर दी है। शायद मोरार जी भाई को पता नहीं कि गांधी न तो आर्थिक व्यक्ति थे और न राजनैतिक। गांधी मूलतः आध्यात्मिक व्यक्ति थे। और इसलिए गांधी को समझने में न तो आर्थिक समझ के लोग उपयोगी हो सकते हैं और न राजनैतिक बुद्धि के लोग उपयोगी हो सकते हैं। गांधी को समझने में केवल वे ही लोग समर्थ हो सकते हैं जिनकी कोई आध्यात्मिक दृष्टि है। और जब तक गांधी पर आध्यात्मिक दृष्टि के लोग विचार नहीं करेंगे तब तक गांधी के संबंध में सत्य का उदघाटन असंभव है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 12:51:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: भारत का भविष्य-(राष्ट्रीय-सामाजिक समस्याएं) भारत का भविष्य-(प्रवचन-06)   भारत का भविष्य--(राष्ट्रीय-सामाजिक) छठवां-प्रवचन-(ओशो) पुराने और नये का समन्वय एक सवाल पूछा गया है, और वह सवाल वही है जो आपके प्राचार्य महोदय ने भी कहा। सरल दिखाई पड़ती है सैद्धांतिक रूप से जो बात, उसको आचरण में लाने पर तत्काल कठिनाइयां शुरू हो जाती हैं। कठिनाइयां हैं, लेकिन असंभावनाएं नहीं हैं। डिफिकल्टीज हैं, इंपासिबिलिटीज नहीं हैं। कठिनाइयां तो होंगी हीं, क्योंकि सवाल बहुत बड़ा है। और अगर हम सोचते हों कि कोई ऐसा हल मिल जाएगा जिसमें कोई कठिनाई नहीं होगी, तो ऐसा हल कभी भी नहीं मिलेगा। कठिनाइयां हैं लेकिन कठिनाइयों से कोई सवाल हल होने से नहीं रुकता, जब तक कि असंभावनाएं न खड़ी हो जाएं। तो एक तो मैं यह कहना चाहता हूं कि कठिनाइयां निश्चित हैं। थोड़ी नहीं, बहुत हैं। लेकिन हल की जा सकती हैं। क्योंकि कठिनाइयां ही हैं और कठिनाइयां हल करने के लिए ही होती हैं। लेकिन अगर हम कठिनाइयों को गिनती करके बैठ जाएं, घबड़ा जाएं, तो फिर एक कदम आगे बढ़ना मुश्किल हो जाता है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 12:23:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: भारत का भविष्य-(राष्ट्रीय-सामाजिक समस्याएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-74 संवेदनशीलता ओर आसक्ति- प्रवचन-चौहत्ररवां  प्रश्नसार: 1-संवेदनशील होते हुए भी विरक्त कैसे हुआ जाए? 2-आप अपने ही शरीर को ठीक क्या नहीं कर सकते? 3-स्वयं श्रम करें या आप पर सब छोड़ दें? 4-क्या सच में जीसस को पता नहीं था कि पृथ्वी गोल है?    पहला प्रश्न : ध्यान की गहरई के साथ-साथ, व्यक्ति वस्तुओं तथा व्यक्तियों के प्रति अधिकाधिक और संवेदनशील होता जाता है। लेकिन इस गहन संवेदनशीलता के कारण व्यक्ति स्वयं को हर चीज के साथ जुड़ा हुआ और एक गहन अंतरंगता में पाला है, और यह अक्सर एक सूक्ष्म आसक्ति का कारण बन जाता है। तो संवेदनशील होते हुए भी विरक्त कैसे हुआ जाए? संवेदनशील होते हुए कैसे हुआ जाए? ये दोनों बातें विरोधी नहीं है, विपरीत नहीं है। यदि तुम अधिक संवेदनशील हो तो तुम विरक्त होओगे; या तुम यदि विरक्त हो तो अधिकाधिक संवेदनशील होते जाओगे। संवेदनशीलता आसक्ति नहीं है, संवेदनशीलता सजगता है। केवल एक सजग व्यक्ति ही संवेदनशील हो सकता है। यदि तुम सजग नहीं हो तो असंवेदनशील होओगे। जब तुम बेहोश होते हो तो बिलकुल असंवेदनशील होते हो; जितनी अधिक सजगता, उतनी ही अधिक संवेदनशीलता। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 8:48:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: तंत्र--सूत्र--(भाग--5) ओशो new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-73 रूपांतरण का भय- प्रवचन-तिहत्ररवां  सारसूत्र: 100-वस्तुओं ओर विषयों का गुणधर्म ज्ञानी व अज्ञानी के लिए समान ही होता है। ज्ञानी की महानता यह है कि वि आत्मगत भाव में बना रहता है, वस्तुओं में नहीं। 101-सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी मानो। बहुत लोग ध्यान में उत्सुक दिखाई पड़ते हैं लेकिन वह उत्सुकता बहुत गहरी नहीं हो सकती, क्योंकि इतने थोड़े से लोग ही उससे रूपांतरित हो पाते हैं। यदि रस बहुत गहरा हो तो वह अपने आप में ही एक आग बन जाता है। वह तुम्हें रूपांतरित कर देता है। बस उस गहन रस के कारण ही तुम बदलने लगते हो। प्राणों का एक नया केंद्र जगता है। तो इतने लोग उत्सुक दिखाई पड़ते हैं लेकिन कुछ भी नया उनमें जगता नहीं, कोई नया केंद्र जन्म नहीं लेता, किसी क्रिस्टलाइजेशन की उपलब्धि नहीं होती। वे वैसे के वैसे ही बने रहते हैं। इसका अर्थ हुआ कि वे स्वयं को धोखा दे रहे हैं। बहुत सूक्ष्म होगी प्रवंचना, लेकिन होगी ही। यदि तुम औषधि लेते रहो उपचार कराते रहो, और फिर भी रोग वैसा का वैसा बना रहे-वरन बढ़ता ही जाए-तो तुम्हारी औषधि, तुम्हारे उपचार झूठे ही होंगे। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 8:40:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: तंत्र--सूत्र--(भाग--5) ओशो new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India शुक्रवार, 7 सितंबर 2018 प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-07) सातवां-प्रवचन-(ओशो) प्रेम है द्वार प्रभु का मनुष्य की आत्मा, मनुष्य के प्राण निरंतर ही परमात्मा को पाने के लिए आतुर हैं। लेकिन किस परमात्मा को, कैसे परमात्मा को? उसका कोई अनुभव, उसका कोई आकार, उसकी कोई दिशा मनुष्य को ज्ञात नहीं है। सिर्फ एक छोटा सा अनुभव है जो मनुष्य को ज्ञात है और जो परमात्मा की झलक दे सकता है। वह अनुभव प्रेम का अनुभव है। और जिसके जीवन में प्रेम की कोई झलक नहीं है उसके जीवन में परमात्मा के आने की संभावना नहीं है। न तो प्रार्थनाएं परमात्मा तक पहुंचा सकती हैं, न धर्मशास्त्र पहुंचा सकते हैं, न मंदिर, मस्जिद पहुंचा सकते हैं, न कोई संगठन हिंदू और मुसलमानों के, ईसाइयों के, पारसियों के पहुंचा सकते हैं। एक ही बात परमात्मा तक पहुंचा सकती है और वह यह है कि प्राणों में प्रेम की ज्योति का जन्म हो जाए। मंदिर और मस्जिद तो प्रेम की ज्योति को बुझाने का काम करते हैं। जिन्हें हम धर्मगुरु कहते हैं, वे मनुष्य को मनुष्य से तोड़ने के लिए जहर फैलाते रहे हैं। जिन्हें हम धर्मशास्त्र कहते हैं, वे घृणा और हिंसा के आधार और माध्यम बन गए हैं। और जो परमात्मा तक पहुंचा सकता था वह प्रेम अत्यंत उपेक्षित होकर जीवन के रास्ते के किनारे अंधेरे में कहीं पड़ा रह गया है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 5:37:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: प्रेम है द्वार पभु का-(विविध)-ओशो new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-06) छठवां-प्रवचन-(ओशो) अहंकार एक पूर्णिमा की रात में एक छोटे से गांव में, एक बड़ी अदभुत घटना घट गई। कुछ जवान लड़कों ने शराबखाने में जाकर शराब पी ली और जब वे शराब के नशे में मदमस्त हो गए और शराब गृह से बाहर निकले तो चांद की बरसती हुई चांदनी में यह ख्याल आ गया कि नदी पर जाए और नौका विहार करें। रात बड़ी सुंदर थी और नशे से भरी हुई थी। वे गीत गाते हुए नदी के किनारे पहुंच गए। नाव वहां बंधी थी। मछुवे नाव बांध कर घर जा चुके थे। रात आधी हो गयी थी। सुबह की ठंडी हवाओं ने उन्हें सचेत किया। उनका नशा कुछ कम हुआ और उन्होंने सोचा कि हम न मालूम कितने दूर निकल आए हैं। आधी रात से हम नाव चला रहे हैं, न मालूम किनारे और गांव से कितने दूर आ गए हैं। उनमें से एक ने सोचा कि उचित है कि नीचे उत्तर कर देख लें कि हम किस दिशा में आ गए हैं। लेकिन नशे में जो चलते हैं उन्हें दिशा का कोई भी पता नहीं होता है कि हम कहां पहुंच गए हैं और किस जगह हैं। उन्होंने सोचा जब तब हम इसे न समझ लें तब तक हम वापस भी कैसे लौटेंगे। और फिर सुबह होने के करीब है, गांव के लोग चिंतित हो जाएंगे। एक युवक नीचे उतरा और नीचे उतर कर जोर से हंसने लगा। दूसरे युवक ने पूछा, हंसते क्यों हो? बात क्या है? उसने कहा, तुम भी नीचे उतर आओ और तुम भी हंसो। वे सारे लोग नीचे उतरे और हंसने लगे। आप पूछेंगे बात क्या थी? और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 5:27:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: प्रेम है द्वार पभु का-(विविध)-ओशो new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-05) पांचवां-प्रवचन-(ओशो) अंतर्यात्रा के सूत्र परमात्मा को जानने के पहले स्वयं को जानना जरूरी है। और सत्य को जानने के पहले स्वयं को पहचानना जरूरी है। क्योंकि जो मेरे निकटतम है, अगर वही अपरिचित है तो जो दूरतम हैं, वह कैसे परिचित हो सकेंगे! तो इसके पहले कि किसी मंदिर में परमात्मा को खोजने जाए, इसके पहले कि किसी सत्य की तलाश में शास्त्रों में भटकें उस व्यक्ति को मत भूल जाना जो कि आप हैं। सबसे पहले और सबसे प्रथम उससे परिचित होना होगा जो कि आप हैं। लेकिन कोई स्वयं से परिचित होने को उत्सुक नहीं है। सभी लोग दूसरे से परिचित होना चाहते हैं। दूसरे से जो परिचय है, वही विज्ञान है, और स्वयं से जो परिचय है, वही धर्म है। जो स्वयं को जान लेता है, बड़े आश्चर्य की बात है, वह दूसरे को भी जान लेता है। लेकिन जो दूसरे को जानने में समय व्यतीत करता है, यह बड़े आश्चर्य की बात है, दूसरे को तो जान ही नहीं पाता, धीरे-धीरे उसके स्वयं को जानने के क्षार भी बंद हो जाते हैं। ज्ञान की पहली किरण स्वयं से प्रकट होती है और धीरे-धीरे सब पर फैल जाती है। ज्ञान की पहली ज्योति स्वयं में जलती है और फिर समस्त जीवन में उसका प्रकाश, उसका आलोक दिखाई पड़ने लगता है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 5:19:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: प्रेम है द्वार पभु का-(विविध)-ओशो new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-04) चौथा-प्रवचन-(ओशो)  महायुद्ध या महाक्रांति मनुष्य की आज तक की सारी ताकत जीने में नहीं, मरने और मारने में लगी है। पिछले महायुद्ध में पांच करोड़ की हत्या हुई। पहले महायुद्ध में कोई साढ़े तीन करोड़ लोग मारे गए। थोड़े से ही बरसों में साढ़े आठ करोड़ लोग हमने मारे हैं। लेकिन शायद मनुष्य को इससे कोई सोच विचार पैदा नहीं हुआ। हर युद्ध के बाद और नये युद्ध के लिए हमने तैयारियां की हैं। इससे यह साफ है कि कोई भी युद्ध हमें यह दिखाने में समर्थ नहीं हो पाया है कि युद्ध व्यर्थ हैं। पांच हजार वर्षों में सारी जमीन पर पंद्रह हजार युद्ध लड़े गए हैं। पांच हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध बहुत बड़ी संख्या है यानी तीन प्रति वर्ष हम करीब-करीब लड़ते ही रहे हैं। कोई अगर पांच हजार वर्षों का हिसाब लगाए तो मुश्किल से तीन सौ वर्ष ऐसे हैं जब लड़ाई नहीं हुई। यह भी इकट्ठे नहीं, एक-एक, दो-दो दिन जोड़कर। तीन सौ वर्ष छोड़कर हम पूरे वक्त लड़ते रहे हैं। या तो मनुष्य का मस्तिष्क विकृत है या युद्ध हमारा बहुत बड़ा आनंद है अन्यथा विनाश के लिए ऐसी विकृत है या युद्ध हमारा बहुत बड़ा आनंद है अन्यथा विनाश के लिए ऐसी आतुरता और मृत्यु के लिए ऐसी गहरी आकांक्षा को समझना कठिन है। जरूर कुछ गड़बड़ हो गई है। लेकिन आज कुछ गलत हो गया ऐसा समझने का कोई कारण नहीं है। सदा से कुछ बड़बड़ है। कोई यह कहता हो कि पहले आदमी बहुत अच्छा था तो भूल भरी बातें कहता है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 5:10:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: प्रेम है द्वार पभु का-(विविध)-ओशो new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-03) तीसरा-प्रवचन-(ओशो) आनंद खोज की सम्यक दिशा अनेक लोगों के मन में यह प्रश्न उठता है कि जीवन में सत्य को पाने की क्या जरूरत है? जीवन इतना छोटा है उसमें सत्य को पाने का श्रम क्यों उठाया जाए? जब सिनेमा देख कर और संगीत सुन कर ही आनंद उपलब्ध हो सकता है, तो जीवन को ऐसे ही बिता देने में क्या भूल है? यह प्रश्न इसलिए उठता है, क्योंकि हमें शायद लगता है कि सत्य और अलग अलग हैं। लेकिन नहीं, सत्य और आनंद दो बातें नहीं हैं। जीवन में सत्य उपलब्ध हो तो ही आनंद उपलब्ध होता है। परमात्मा उपलब्ध हो तो ही आनंद उपलब्ध होता है। आनंद, सत्य या परमात्मा एक ही बात को व्यक्ति करने के अलग अलग तरीके हैं। तब इस भांति न सोचें कि सत्य की क्या जरूरत है? सोचें इस भांति कि आनंद की क्या जरूरत है? और आनंद की जरूरत तो सभी को मालूम पड़ती है, उन्हें भी जिनके मन में इस तरह के प्रश्न उठते हैं। संगीत और सिनेमा में जिन्हें आनंद दिखाई पड़ता है उन्हें यह बात समझ लेना जरूरी है कि मात्र दुख को भूल जाना ही आनंद नहीं है। सिनेमा, संगीत या इस तरह की और सारी व्यवस्थाएं केवल देख को भुलाती हैं, आनंद को देती नहीं। शराब भी दुख को भूला देती है, संगीत भी, सिनेमा भी, सेक्स भी। इस तरह दुख को भूल जाना एक बात है और आनंद को उपलब्ध कर लेना बिल्कुल ही दूसरी बात है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 4:58:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: प्रेम है द्वार पभु का-(विविध)-ओशो new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-02) दूसरा-प्रवचन-(ओशो) जीवन की कला मैं अत्यंत आनंदित हूं। छोटे छोटे बच्चों के बीच बोलना अत्यंत आनंदपूर्ण होता है। एक अर्थ में अत्यंत सृजनात्मक होता है। बूढ़ों के बीच मुझे बोलना इतना सुखद प्रतीत नहीं होता। क्योंकि उनमें साहस की कमी होती है, जिसके कारण उनके जीवन में क्रांति होना करीब करीब असंभव है। छोटे बच्चों में तो साहस अभी जन्म लेने को होता है। इसलिए उनके साहस को पुकारा जा सकता है और उनसे आशा भी बांधी जा सकती है। एक बिल्कुल ही नई मनुष्यता की जरूरत है। शायद उस दिशा में तुम्हें प्रेरित कर सकूं इसलिए मैं खुश हूं। मैं थोड़ी सी बातें बच्चों से कहना चाहूंगा, कुछ अध्यापकों से और कुछ अभिभावकों से जो यहां मौजूद हैं, क्योंकि शिक्षा इन तीनों पर ही निर्भर होती है। पहली बात तो मैं यह कहूं कि विद्यालय सारी दुनिया में बनाए जा रहे हैं, विश्वविद्यालय बनाए जा रहे हैं। सारी दुनिया का ध्यान बच्चों की शिक्षा पर दिया जा रहा है और ज्यादा से ज्यादा लोग शिक्षित भी होते जा रहे हैं, लेकिन परिणाम बहुत शुभ नहीं है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 4:52:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: प्रेम है द्वार पभु का-(विविध)-ओशो new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-01) प्रेम है द्वार पभु का-(विविध)-ओशो पहला-प्रवचन-(ओशो) भय या प्रेम मेरे प्रिय आत्मन्! मनुष्य-जाति भय से, चिंता से, दुख और पीड़ा से आक्रांत है, और पांच हजार वर्षों से..आज ही नहीं। जब आज ऐसी बात कही जाती है कि मनुष्यता आज भय से, चिंता से, तनाव से, अशांति से भर गई है तो ऐसा भ्रम पैदा होता है जैसे पहले लोग शांत थे, आनंदित थे। यह बात शत-प्रतिशत असत्य है कि पहले लोग शांत थे और चिंता-रहित थे। आदमी जैसा आज है वैसा हमेशा था। ढाई हजार वर्ष पहले बुद्ध लोगों को समझा रहे थे, शांत होने के लिए। अगर लोग शांत थे, तो शांति की बात समझानी फिजूल थी? पांच हजार वर्ष पहले उपनिषदों के ऋषि भी लोगों को समझा रहे थे आनंदित होने के लिए; लोगों को समझा रहे थे दुख से मुक्त होने के लिए; लोगों को समझा रहे थे प्रेम करने के लिए। अगर लोग प्रेमपूर्ण थे और शांत थे तो उपनिषद के ऋषि पागल रहे होंगे। किसको समझा रहे थे? और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 4:43:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: प्रेम है द्वार पभु का-(विविध)-ओशो तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-72 असुरक्षा में जीना बुद्धत्व का मार्ग है- प्रश्नसार- 1-कृपया बुद्ध के प्रेम को समझाएं। 2-क्या प्रेम गहरा होकर विवाह नहीं बन सकता? 3-क्या व्यक्ति असुरक्षा में जीते हुए निशिंचत रह सकता है? 4-अतिक्रमण की क्या अवश्यकता है? पहला प्रश्न :  आपने कहा कि प्रेम केवल मृत्यु के साथ ही संभव है। फिर क्या आप कृपया बुद्ध पुरुष के प्रेम के विषय में समझाएंगे? व्यक्ति के लिए तो प्रेम सदा घृणा का ही अंग होता है सदा घृणा के साथ ही आता है। अज्ञानी मन के लिए तो प्रेम और घृणा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अज्ञानी मन के लिए प्रेम कभी शुद्ध नहीं होता। और यही प्रेम का विषाद है क्योंकि वह घृणा जो है, विष बन जाती है। तुम किसी से प्रेम करते हो और उसी से घृणा भी करते हो। लेकिन हो सकता है, तुम घृणा और प्रेम दोनों एक साथ न कर रहे होओ तो तुम्हें कभी इसका पता ही नहीं चलता। जब तुम किसी से प्रेम करते हो तो तुम घृणा वाले हिस्से को भूल जाते हो वह नीचे चला जाता है, अचेतन मन में चला जाता है और वहां प्रतीक्षा करता है। फिर जब तुम्हारा प्रेम थक जाता है तो वह अचेतन में गिर जाता है और घृणा वाला हिस्सा ऊपर आ जाता है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 8:50:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: तंत्र--सूत्र--(भाग--5) ओशो new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-71 परिधि का विस्मरण- प्रवचन-इक्हत्रवां सूत्र:   98-किसी सरल मुद्रा में दोनों कांखों के मध्य-क्षेत्र (वक्षस्थल) में धीरे-धीरे शांति व्याप्त होने दो। 99-स्वयं को सभी दिशाओं में परिव्याप्त होता हुआ महसुस करो-सुदूर-समीप। जीवन बाहर से एक झंझावात है-एक अनवरत द्वंद्व, एक उपद्रव, एक संघर्ष। लेकिन ऐसा केवल सतह पर है। जैसे सागर के ऊपर उन्मत्त और सतत संघर्षरत लहरें होती हैं। लेकिन यही सारा जीवन नहीं है। गहरे में एक केंद्र भी है-मौन, शांत, न कोई द्वंद्व, न कोई संघर्ष। केंद्र में जीवन एक मौन और शांत प्रवाह है जैसे कोई सरिता बिना संघर्ष, बिना कलह, बिना शोरगुल के बस बह रही हो। उस अंतस केंद्र की ही खोज है। तुम सतह के साथ, बाह्य के साथ तादाल्म बना सकते हो। फिर संताप और विषाद घिर आते हैं। यही है जो सबके साथ हुआ है; हमने सतह के साथ और उस पर चलने वाले कलह के साथ तादात्म्य बना लिया है। सतह तो अशांत होगी ही, उसमें कुछ भी गलत नहीं है। और यदि तुम केंद्र में अपनी जड़ें जमा सको तो परिधि की अशांति भी सुंदर हो जाएगी, उसका अपना ही सौंदर्य होगा। यदि तुम भीतर से मौन हो सको तो बाहर की सब ध्वनियां संगीतमय हो जाती हैं। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 8:42:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: तंत्र--सूत्र--(भाग--5) ओशो new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India गुरुवार, 6 सितंबर 2018 प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-16) प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-बार्ताएं) सोलहवां-प्रवचन-(ओशो)  लीला का अर्थ है वर्तमान में जीना एक तो वर्तमान से एकाकार होने के लिए मैंने नहीं कहा है। एकाकार तो मैं कहता हूं किसी से भी मत होना। क्योंकि एकाकार होने का मतलब मूच्र्छा के और कुछ भी नहीं हो सकता। जब तक तुम्हें होश है तब तक तुम एकाकार कैसे होओगे? जब तुम बेहोश हो तभी हो सकते हो। यानी जब तक भी तुम्हें होश है, तब तक तुम अलग हो। तुम एकाकार हो कैसे सकते हो? इसलिए मूच्र्छित व्यक्ति के सिवाय एकाकार कोई कभी नहीं होता या निद्रा में होता है। प्रकृति से एकाकार हो जाता है। तो मैं तो एकाकार होने के बिलकुल विरोध में हंू। तल्लीनता के बिलकुल विरोध में हूं। मेरा कहना बिलकुल उलटा है। मैं यह कहता हूं, वर्तमान के प्रति जागरूक होना--एकाकार नहीं। अवेयरनेस आॅफ दि प्रेजेंट, आईडेंटिटी नहीं। वह जो वर्तमान क्षण है, हमारे पास से जो गुजर रहा है, उसके प्रति पूरे जागरूक होना। फिर इस वर्तमान क्षण के प्रति जागरूक होने में बहुत बार दिखाई पड़ता है कि भविष्य की बात है यह, लेकिन हो सकता है समस्या वर्तमान में हो। जैसे कि कल मुझे ट्रेन पकड़नी है। लेकिन टिकट तो आज खरीदनी है। ट्रेन तो कल ही पकडूंगा, आज कोई उपाय भी नहीं है पकड़ने का। ट्रेन तो कल ही पकडूंगा न, आज तो कोई उपाय नहीं है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 2:46:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: प्रेम नदी के तीरा-(अंतरग वार्ताएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-15) प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)  पंद्रहवां-प्रवचन-ओशो जो बाहर से आया वह ज्ञान नहीं है   ...सत्य जैसी कोई चीज नहीं है। सब सत्य वही है। मेरा, आपका...जैसे प्रेम जैसी चीज...आपका प्रेम, उनका प्रेम सार्थक है, अर्थ रखता है। प्रेम जैसी चीज खोजने से कहीं भी मिलने वाली नहीं है। और जब मैं प्रेम करता हूं, तो वैसा प्रेम दुनिया में कभी किसी ने नहीं किया। वह मैं ही करता हूं। क्योंकि मैं कभी दुनिया में नहीं हुआ। जब आप प्रेम करते हैं, तो वह प्रेम आप ही करते हैं। दुनिया में कभी न किसी ने किया, न कर सकता है, न कभी करेगा। तो यद्यपि हम कहते हैं कि हजार साल पहले किसी आदमी ने प्रेम किया, दस हजार साल पहले किसी आदमी ने प्रेम किया। मैं प्रेम करता हूं, आप प्रेेम करते हैं। आने वाले बच्चे प्रेम करेंगे। लेकिन हर बार प्रेम जब भी फलित होगा, तो नया ही फलित होगा। पुराने प्रेम जैसी कोई चीज नहीं होती। जब मैं प्रेम करूंगा तो वह अनुभव एकदम ही नया है। वह अनुभव मुझे ही हो रहा है। वह अनुभव कभी किसी को नहीं हुआ। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 2:18:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: प्रेम नदी के तीरा-(अंतरग वार्ताएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-14) प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)-ओशो  (प्रवचन -चौहदवां) इंद्रियों की जड़ें शरीर में ...सब ऐसा हो सकता है जो ऊपर की तरफ इशारा करता हो, और सब ऐसा हो सकता है कि नीचे की तरफ इशारा करता हो। असल में कोई सीढ़ी ऐसी नहीं जो दोनों तरफ नहीं जाती हो। सब सीढ़ियां दोनों तरफ जाती हैं। ऊपर की तरफ भी वही सीढ़ी जाती है, नीचे की तरफ भी वही सीढ़ी आती है। सिर्फ आपके रुख पर निर्भर करता है कि आप किस तरफ जा रहे हैं। तो एक दफा रुख साफ हो जाए। इधर तो मैं इस पर सच में निरंतर सोचता हूं। अगर एक चित्र को देख कर एक आदमी की कामुकता जग सकती है तो ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि एक चित्र को देख कर आदमी की कामुकता विलीन हो जाए। ये दोनों बातें एक साथ हो सकती हैं। मगर ऐसा चित्र तो बना नहीं पाता साधु जो कामुकता को विलीन करता हो। चिल्लाता यह है कि वह कामुकता वाला चित्र नहीं चाहिए। वह तो रहेगा। तुम चित्र को और श्रेष्ठ चित्र से बदल सकते हो। और कोई उपाय नहीं बदलने का। संगीत और श्रेष्ठ संगीत से बदल सकता है; संगीत मिटाने का उपाय नहीं है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 9:08:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: प्रेम नदी के तीरा-(अंतरग वार्ताएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-13) प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)-ओशो  तेरहवां -प्रवचन निर्णय न लें, उपलब्ध रहें प्रश्नः ...यानी किसी बात के बनने में हम एक विचार खोज करके एक कोई नियोजन करते हैं एंड स्टिल दे विल वन थिंग जिसका हम नियोजन नहीं कर पाते हैं...दिस इ.ज ए...एक्सीडेंड। नहीं, मैं इसलिए पूछता हूं कि असल में ऐसी कोई भी घटना इतना ही बताती है कि जीवन क्या है? और कैसे चलता है? और कैसे समाप्त हो जाता है? न हम इसे जानते हैं, न इस पर हमारा कोई चरम अधिकार मालूम होता है--घटना इतना ही बताती है। इतना निगेटिव। प्रश्नः चरम अधिकार नहीं है, इतना तो बताती जरूर है। बिलकुल निगेटिव न। नहीं, लेकिन किसी का चरम अधिकार है वह। हम, वह जो, वह जो कोई पाॅवर, कोई परमात्मा है, वह हम जोड़ रहे हैं। घटना सिर्फ इतना बताती है कि हमें पता नहीं कि जीवन कैसे चलता है और कैसे समाप्त हो जाता है। हम नियोजक नहीं हैं पूरे। कुछ ऐक्ट्स छूटा रह जाता है। और वह सब कुछ कर देता है, और हमारी सारी व्यवस्था व्यर्थ हो जाती है। जीवन एक रहस्य है जिसका ओर-छोर हमारी पकड़ में नहीं आता है। इतनी बात भर पता चलती है, इतना निगेटिव भर पता चलता है। पाजिटिव हम जोड़ रहे हैं कि--दैव है, भाग्य है, परमात्मा है कोई शक्ति--वह हम जोड़ रहे हैं। वह इस घटना से कहीं भी आता नहीं। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 8:56:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: प्रेम नदी के तीरा-(अंतरग वार्ताएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-12) प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)-ओशो  बारहवां-प्रवचन स्मृति के विसर्जन में चैतन्य का जागरण है  ..और जब हम पूछते हैं कि संसारी का क्या मार्ग हो? तो असल में हमारा मतलब यह है कि हम संन्यासी नहीं हैं। सामान्य घर-गृहस्थी में हैं। हम क्या करें? यही है न मतलब हमारा। हम कहां हैं? हमारा... खोज ले सकता है। क्योंकि आत्मा प्रति क्षण उपस्थित तो है मेरे भीतर। मैं कहीं बाहर घूम रहा हूं, और भीतर जाने का मार्ग नहीं पाता हूं। निरंतर यह सुनने पर भी कि भीतर जाना है, मेरा सारा घूमना बाहर ही होता है। और भीतर हो जाना, नहीं हो पाता। तो असल में कुल इतना समझ लेना है कि बाहर मैं किन वजहों से घूम रहा हूं? कौन से कारण मुझे बाहर घुमा रहे हैं? अगर वे कारण मेरे हाथ से छूट जाएं तो मैं भीतर पहुंच जाऊंगा। अगर ठीक से समझें तो भीतर पहुंचने के लिए किसी मार्ग की जरूरत नहीं है। जिन मार्गों के कारण हम बाहर घूम रहे हैं, अगर वे भर हम छोड़ दें, उनका कारण भर नकारात्मक हो जाए स्थिति, तो हम पहुंच जाएंगे। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 8:33:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: प्रेम नदी के तीरा-(अंतरग वार्ताएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-11) प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं) -ओशो ग्यारहवां -प्रवचन प्रामाणिकता सर्वोपरि है अंगुलीमाल जो कह रहा है, वह एक क्षण में बदल जाता है। इतनी ताकत का आदमी है। ताकत जो है, उसकी कोई दिशा नहीं है। दिशा हम देते हैं। एक अर्थ में बुरे होने की क्षमता सौभाग्य है। क्योंकि क्षमता तो है। बुरे हुए यह गलती की है। और क्षमता है। और मजे की बात यह है कि बुरा होना हमेशा भले होने से कठिन है। यहां भ्रम तौर से ऐसा नहीं दिखाई पड़ता, लेकिन बुरा होना अच्छे होने से बहुत कठिन है। प्रश्नः कांशसली बुरा होता है? कांशसली...बहुत कठिन है और बहुत शक्ति मांगता है। क्योंकि प्राणों की पूरी आकांक्षा तो सदा ऊपर जाने की है, और आप उसे नीचे ले जाते हैं। बड़ी ताकत लगती है। और जद्दोजहद दुनिया से तो है ही, अपने से भी है। बुरा आदमी दोहरी लड़ाई लड़ता है। अच्छा आदमी इकहरी लड़ाई लड़ता है। अच्छा आदमी सिर्फ आस-पास की दुनिया से लड़ता है। बुरा आदमी आस-पास की दुनिया से तो लड़ता ही है, अपने से भी लड़ता है। और अपने से लड़ता है नीचे जाने के लिए...और भीतर तो कोई निरन्तर ऊपर उठना चाहता है। वह, वह जो ऊपर उठने की चाह है, वह कहीं भी पीछा नहीं छोड़ती। अब रह गई बात ताकत की। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 8:21:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: प्रेम नदी के तीरा-(अंतरग वार्ताएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-10) प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं) -ओशो  दसवां-प्रवचन नींद और मौत एक जैसी होती है ...होता है जब तक जानना नहीं होता। प्रश्नः लेकिन जब जान जाए.... तब तो कोई सवाल ही नहीं उठता। प्रश्नः तब तो जान भी गया और मान भी गया? फिर तो मानने का सवाल ही नहीं उठता। प्रश्नः मान तो गया ही... नहीं-नहीं,... प्रश्नः जो जान गया किसी चीज को, फिर तो मानने और जानने में क्या अंतर रह गया? मानने का...। प्रश्नः मानना पहली सीढ़ी है, जानना दूसरी सीढ़ी है। मैं ऐसा नहीं कहता, मैं ऐसा नहीं कहता। प्रश्नः आप नहीं कहते। लेकिन आप अगर किसी चीज को जान जाएंगे...? और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 7:58:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: प्रेम नदी के तीरा-(अंतरग वार्ताएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India बुधवार, 5 सितंबर 2018 प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-09) प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)-ओशो  नौवां-प्रवचन शास्त्र को नहीं, समझ को आधार बनाए प्रश्नः जीवन और मौत, क्योंकि एक-दूसरे को फॉलो करते हैं, और निश्चय ही उनमें से कुछ न कुछ टाइमिंग का फर्क तो होगा ही।... मृत्यु के बाद जो लाइफ मिलती है, लोग कहते हैं कि एक चेंज आॅफ ड्रेस होता है। सिर्फ पहनावा बदल जाता है, आत्मा वही रहती है। वह पहनावा जो हमें मिलता है, या तो वह हमारी मर्जी से मिलता है, हमारी कंसेंट से ही दिया जाता है या हमें फोर्स करके दिया जाता है। जन्म तो हमें अपनी मर्जी से दिया जाता है। तो फिर उसका मतलब यह है कि उस वक्त हमारे मन में था कि हम यह पहनावा लेकर क्या करेंगे? और क्या करेंगे, वह हम भूल चुके हैं। हमारा लक्ष्य क्या है? और अगर वह हमें दिया गया है तो निश्चय ही हमें कुछ न कुछ सोच करके दिया गया है कि तुम जाओ और यह करो। तो अब यह हमारा लक्ष्य क्या है? अगर हम सबका लक्ष्य एक ही है तो फिर सबके एनवायरनमेंट्स और ड्रेसेज सेम क्यों नहीं हैं? कुछ लोग कहते हैं कि हमारा लक्ष्य है--परमात्मा को पाना ही है हमारा लक्ष्य। कुछ कहते हैं, आप तो जानते हैं कि परमात्मा वैसे तो मिल ही नहीं सकता। जैसे, कितनी देर निर्विचार और कुछ न करने से परमात्मा मिलता है। और जिंदगी जद्दोजहद का नाम है। ऐसी कंट्राडिक्शन सी आ जाती है। हमारा लक्ष्य क्या है? यही हमारा प्रश्न है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 12:50:00 pm इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: प्रेम नदी के तीरा-(अंतरग वार्ताएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-08) प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)-ओशो  आठवां-प्रवचन हिंदुस्तान आध्यात्मिक देश नहीं है (अस्पष्ट)...वैसे उस मेथड से यह तीव्र है बहुत। मतलब कि जल्दी होगा। (अस्पष्ट)...लगता भी है बिलकुल। एकदम होना शुरू होता है। और वह करीब सौ में से पांच प्रतिशत लोगों के काम का है वह मेथड। यह सौ में से करीब साठ प्रतिशत लोगोें के काम का है। एक तो ऐसा कोई देश नहीं है जहां महात्मा न हुए हों। लेकिन उन महात्माओं के संबंध में पता चलने में दो-तीन तरह की कठिनाइयां हैं। एक कठिनाई तो यह है कि महात्मा, हम अपने ही महात्माओं के संबंध में जानते हैं। अगर हम आपसे पूछें कि ईसाइयत ने कितने महात्मा पैदा किए हैं? तो जीसस का नाम साधारणतया खयाल में आएगा। जो लोग और थोड़ा ज्यादा जानते हैं वह संत फ्रांसिस का या अगस्तीन का नाम ले सकेंगे। लेकिन हजारों उच्च कोटि के साधु ईसाइयत ने पैदा किए हैं जिनका हमें कोई पता नहीं है। ठीक ऐसे ही ईसाई को भी पता नहीं है आपके महात्माओं का। अब मुसलमानों ने सूफी फकीर इतनी कीमत से पैदा किए हैं जिनका कोई हिसाब नहीं। लेकिन हम एक-दो रूमी या 2: 44 .(अस्पष्ट) इस तरह के दो-चार नामों का उपयोग कर सकते हैं। लेकिन हजारों की संख्या में लोग पैदा हुए हैं। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 8:45:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: प्रेम नदी के तीरा-(अंतरग वार्ताएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-07) प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)-ओशो  सातवां-प्रवचन ध्यानी को अभिनेता होना पड़ता है दो बातें समझनी चाहिए। एक तो किसी चीज में विकास होता है। विकास में कंटीन्यूटी होती है, सातत्य होता है। लेकिन विकास में नई चीज कभी पैदा नहीं होती है। पुराना ही मौजूद रहता है। थोड़ा बहुत फर्क होता हैै, लेकिन पुराना ही मौजूद होता है। तो जिस-जिस चीज में विकास होता है, उसमें पुराना समाप्त नहीं होता। सिर्फ पुराना नये ढंग, नये रूप, नई आकृतियों में फिर मौजूद रहता है। जैसे बच्चा जवान होता है, यह विकास है। जंप नहीं है, छलांग नहीं है, इसलिए आपको कभी पता नहीं लगता है कि कब बच्चा जवान हो गया। वह धीरे-धीरे होता है। जवानी आ जाती है, लेकिन बच्चा समाप्त नहीं हो जाता। बच्चा ही जवान हो गया होता है। इसलिए मौके-बेमौके जवान फिर बच्चे के जैसा व्यवहार कर सकता है। उसमें कोई कठिनाई नहीं है। हम भी बहुत बार वापस लौट के काम करने लगते हैं और बच्चों जैसा व्यवहार कर सकते हैं। बूढ़ा भी बच्चों जैसा व्यवहार कर सकता है। अब जवान धीरे-धीरे धीरे-धीरे बूढ़ा हुआ जाता है। लेकिन यह इतने-इतने धीरे होता है कि जवान कभी नहीं मिट पाता। जवान मौजूद रहता है, उसके ऊपर ही बुढ़ापा भी जुड़ जाता है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 7:20:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: प्रेम नदी के तीरा-(अंतरग वार्ताएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-06) प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)  छठवां-प्रवचन-ओशो  गुरु होना आसान है, शिष्य बनना मुश्किल (प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।) ऐसा होने का कारण है। थोड़े नहीं, बहुत कारण हैं। एक तो धर्म सदा ही नई चीज है, सदा। धर्म सदा ही नई चीज है। धर्म कभी पुराना नहीं पड़ता। पड़ ही नहीं सकता। लेकिन हमारी सब मान्यताएं पुरानी पड़ जाती हैं। धर्म तो सदा नया है। लेकिन मान्यताएं सब पुरानी हो जाती हैं। इसलिए जब भी धर्म फिर से जाग्रत होगा, फिर से कभी भी किसी व्यक्ति से प्रकट होगा, तब मान्यताओं वाले सभी व्यक्तियों को अड़चन और कठिनाई होगी। ऐसा एक दफा नहीं होगा, हमेशा होगा। चाहे कृष्ण पैदा हो, तो उस जमाने का जो पुरोहित है, उस जमाने का जो तथाकथित, सो-काल्ड रिलीजियस आदमी है, वह कृष्ण के खिलाफ हो जाएगा। वह इसलिए खिलाफ हो जाएगा कि उसके पास तो पुरानी मान्यताएं हैं और यह आदमी धर्म को फिर नया रूप देगा। यह नया रूप उस अंधे आदमी की पकड़ में नहीं आएगा। उसको यह भी पता नहीं चलेगा कि वह जिसे बचा रहा है, वही अधर्म है। और जिसके खिलाफ लड़ रहा है वह धर्म है, उसे यह पता नहीं चलेगा। उसे तो पता चलेगा कि मैं जो पकड़े हुए था वह ठीक था। और अब कोई आदमी उसे गलत किए दे रहा है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 7:07:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: प्रेम नदी के तीरा-(अंतरग वार्ताएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-05) प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्तएं)-ओशो पांचवां-प्रवचन पति-पत्नी और प्रेम और जीसस अगर जमीन पर लौटें तो पहले क्रिश्चिएनिटी को डिनाई करना पड़ेगा, क्योंकि यह, यह तो कभी बात ही नहीं उठी कभी। यह मैंने कब कहा? मगर वह सदा ऐसा होता है। तो मेरी दृष्टि में मैं जो कह रहा हूं वह परंपरा तो कोई नहीं है; लेकिन जो मैं कह रहा हूं वह नया भी नहीं है, पुराना भी नहीं है। प्रश्नः आपके खिलाफ जो बगावत है वह तो खैर समझ में आई, अब आपका प्रोग्राम गया? नहीं, मेरा कोई प्रोग्राम नहीं है। मेरा कोई प्रोग्राम नहीं। और बगावत की तरफ मेरी कोई दृष्टि नहीं। कोई रुख भी नहीं। मैं मानता हूं कि वह स्वाभाविक है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 5:31:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: प्रेम नदी के तीरा-(अंतरग वार्ताएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-04) प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)-ओशो  प्रवचन-चौथा  धर्म को गुरु नहीं, शिष्य चाहिए आप बहुत गहरा भाव करते हैं तो ऐसा नहीं है कि सिर्फ कल्पना ही है आपको। नहीं आपमें से किसी गहरे व्यक्ति से संबंधित होगा। और वह जो संबंधित हो जाए न, वहां उसके कोई फासले का सवाल नहीं है, टाइम का सवाल नहीं है, दूरी का सवाल नहीं है। यही सब पूरा का पूरा साइंटिफिक मामला है, सारी की सारी साइंस की बात है। आपकी कहीं समझ बढ़ जाए तो बहुत काम आएगी। प्रश्नः आसनों के बारे में आपका क्या विचार है? आसन के संबंध में...नहीं, जहां तक आपको करने की जरूरत नहीं है। इसमें बहुत से आसन आप से होने लगेंगे। ये प्रक्रियाएं अगर आप पंद्रह-बीस दिन करते हैं तो आपसे बहुत से आसन होने लगेंगे। अभी तो कैंप में कोई शीर्षासनों तक चला जाता था, करते-करते। क्योंकि जब शरीर को पूरा छोड़ता हो तो उसका शरीर शीर्षासन करने लगे तो वह क्या करे? और ये सारे आसन इसी तरह विकसित हुए हैं। इनको किसी ने विकसित किया नहीं। ऐसी अवस्था में शरीर कई तरह के रूप लेने शुरू करता है, कई मुद्राएं बनाता है, कई आसन बनाता है। और जानिएं » प्रस्तुतकर्ता Mansa Anand पर 5:17:00 am इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! Twitter पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें लेबल: प्रेम नदी के तीरा-(अंतरग वार्ताएं) new Dehli Dasghara, New Delhi, Delhi 110012, India पुराने पोस्ट मुख्यपृष्ठ सदस्यता लें संदेश (Atom) यह ब्लॉग खोजें Translate ओशो की किरण जीवन में जिस दिन से प्रवेश की हैै, वहीं से जीवन का शुक्‍ल पक्ष शुरू हुआ, कितना Mansa Anand भीतर एक अन्धकार है, वह बाहर कि रोशनी से वह नहीं मिटता। सच तो यह है कि बाहर जितनी अधिक रोशनी होती है, उतना ही भीतर का अंधकार स्परष्ट  और घना होता जाता है, रोशनी के पटल पर और भी उभर कर प्रकट हो जाता है।ओशो की किरण ने जीवन में जिस दिन से प्रवेश किया, वहीं से जीवन का शुक्‍ल पक्ष शुरू हुआ, कितना धन्‍य भागी हूं ओशो को पाकर उस सब के लिए शब्‍द नहीं है मेरे पास.....अभी जीवन में पूर्णिमा का उदय तो नहीं हुआ है। परन्‍तु क्‍या दुज का चाँद कम सुदंर होता है। देखे कोई मेरे जीवन में झांक कर। आस्‍तित्‍व में सीधा कुछ भी नहीं होता है...सब वर्तुलाकार है , फिर जीवन उससे भिन्‍न कैसे हो सकता है। कुछ अंबर की बात करे, कुछ धरती का साथ धरे। कुछ तारों की गूंथे माला, नित जीवन का सिंगार करे।। मनसा  मेरा पूरा प्रोफ़ाइल देखें ओशो पोस्‍ट क्रमांक.... ▼  2018 (552) ▼  September (87) तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-80 तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-79 तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-78 तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-77 तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-76 तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-75 मन का दर्पण-(प्रवचन-04) मन का दर्पण-(प्रवचन-03) मन का दर्पण-(प्रवचन-02) मन का दर्पण-(प्रवचन-01) भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-05) भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-04) भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-03) भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-02) भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-01)  भारत का भविष्य-(प्रवचन-17) भारत का भविष्य-(प्रवचन-16) भारत का भविष्य-(प्रवचन-15) भारत का भविष्य-(प्रवचन-14) भारत का भविष्य-(प्रवचन-13) भारत का भविष्य-(प्रवचन-12) भारत का भविष्य-(प्रवचन-11) भारत का भविष्य-(प्रवचन-10) भारत का भविष्य-(प्रवचन-09) भारत का भविष्य-(प्रवचन-08) भारत का भविष्य-(प्रवचन-07) भारत का भविष्य-(प्रवचन-06)   तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-74 तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-73 प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-07) प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-06) प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-05) प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-04) प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-03) प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-02) प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-01) तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-72 तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-71 प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-16) प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-15) प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-14) प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-13) प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-12) प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-11) प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-10) प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-09) प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-08) प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-07) प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-06) प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-05) प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-04) प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-03) प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-02) प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-01) प्रेम दर्शन-(प्रवचन-04) प्रेम दर्शन-(प्रवचन-03) प्रेम दर्शन-(प्रवचन-02) प्रेम दर्शन-(प्रवचन-01) तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-70 तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-69 प्रेम गंगा-(विविध)-प्रवचन-04 प्रेम गंगा-(विविध)-प्रवचन-03 प्रेम गंगा-(विविध)-प्रवचन-02 प्रेम गंगा-(विविध)-प्रवचन-01  तंत्र--सूत्र--(भाग--5) 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जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो (10) उपनिषद--(मेरा स्‍वर्णिम भारत) (43) उपनिषद--अध्‍यात्‍म--ओशो (16) उपनिषद--आत्म पूजा-(भाग-01) (18) उपनिषद--आत्म पूजा-(भाग-02) (18) उपनिषद--ईशावास्‍य--ओशो (13) उपनिषद--कठोपनिषद--ओशो (18) उपनिषद--केनोउपनिषद--ओशो (17) उपनिषद--कैवल्‍य -ओशो (17) उपनिषद--निर्वाण--ओशो (16) उपनिषद--सर्वसार--ओशो (17) उपासना के क्षण-(अंतरंग-वार्ताएं) (11) एक एक कदम (विविध)--ओशो (7) एक ओंकार सतनाम (नानक) ओशो (20) एक नया द्वार-(विविध) (5) एक विचार (12) एस धम्‍मो संनतनो--(भाग-01) (11) एस धम्‍मो संनतनो--(भाग-02) (11) एस धम्‍मो संनतनो--(भाग-03) (11) एस धम्‍मो संनतनो--(भाग-04) (12) एस धम्‍मो संनतनो--(भाग-05) (11) एस धम्‍मो संनतनो--(भाग-06)-ओशो (10) एस धम्‍मो संनतनो--(भाग-07)-ओशो (11) एस धम्‍मो संनतनो--(भाग-08)-ओशो (12) एस धम्‍मो संनतनो--(भाग-09)-ओशो (11) एस धम्‍मो संनतनो--(भाग-10)-ओशो (12) एस धम्‍मो संनतनो--(भाग-11)-ओशो (11) एस धम्‍मो संनतनो--(भाग-12)-ओशो (11) ओशा के अमृत पत्र (6) ओशो एक परिचय-- (1) ओशो का अप्रकासित सहित्य- (8) ओशो की प्रिय पूस्‍तके-- (107) ओशो की शौर्य गाथा—स्‍वामी संजय भारती (4) ओशो सत्‍संग (42) ओशो--ईसामसीह के पश्‍चात सर्वाधिक विदो ही व्‍यक्‍ति (6) कथा यात्रा-एस धम्‍मों सनंतनो (76) कन थोरे कांकर घने-(संत मलूकदास) (10) कहा कहूं उस देस की-(प्रश्नोंत्तर) (6) कहानी--कथा (15) कहै कबीर दीवाना--ओशो (21) कहै कबीर मैं पूरा पाया-ओशो (10) कहै वाजिद पुकार--(वाजिद शाह) (11) का सोवै दिन रैन--(धनी धरमदास) (11) काहे होत अधीर--(संत पलटूदास) ओशो (20) कुछ बातें--भेद भरी (16) कृष्‍ण--स्‍मृति (22) कोपलें फिर फूट आईं--(प्रश्‍न--चर्चा्) ओशो (13) क्या ईश्वर मर गया है?-(विविध) (4) क्या तुम वहीं हो?–(मा सीता) (8) क्या मनुष्य एक यंत्र है?-(विविध) (4) क्या सोवै तू बावरी-(प्रश्नोंत्तर) (7) गीता दर्शन--(भाग--1) ओशो (29) गीता दर्शन--(भाग--2) ओशो (29) गीता दर्शन--भाग--3 (ओशो) (31) गीता दर्शन--भाग--4 (ओशो) (25) गीता दर्शन--भाग--5 (ओशो) (28) गीता दर्शन--भाग--6 (ओशो) (24) गीता दर्शन--भाग--7 (ओशो) (26) गीता दर्शन--भाग--8 (ओशो) (33) गुरु-परताप साध की संगति—(संत भीखादास) (12) गूंगे केरी सरकरा-(कबीर दास) (10) घाट भुलाना बाट बिनु-(विविध) (8) चल हंसा उस 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